ACCOUNTING

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लेखांकन :लेखांकन व्यवसाय की भाषा है व्यवसाय के वित्तीय व्यवहारो को विधिवत रूप से लिखने एवं प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को लेखांकन कहते है  लेखांकन व्यवसाय की आर्थिक क्रियाओ के मापने एवं उनके आर्थिक परिणामो को सूचित करने का साधन है लेखांकन का आधार बहीखाता है
 बहीखाता लेखांकन की प्रारम्भिक अवस्था है  जहा बहीखाता का कार्य  समाप्त होता है वही से लेखांकन प्रारंभ होता है बहीखाता के बिना  लेखांकन संभव नहीं है और लेखांकन के बिना बहीखाता का कोई उपयोग नहीं है
बहीखाता ( book keeping ): बहीखाता शब्द का अंग्रेजी अनुवाद 'bookkeeping ' है यह दो शब्द के मिश्रण से बना है book + keeping  .  book का अर्थ किताब से है और keeping का अर्थ रखने से है दोनों को मिलाकर देखा जाय तो बुक कीपिंग का अर्थ होता है किताब रखना
लेखा शास्त्र शेयर धारकों और प्रबंधकों आदि के लिए किसी व्यावसायिक इकाई के बारे में वित्तीय जानकारी संप्रेषित करने की कला है। लेखांकन को ‘व्यवसाय की भाषा’ कहा गया है। हिन्दी में ‘एकाउन्टैन्सी’ के समतुल्य ‘लेखाविधि’ तथा ‘लेखाकर्म’ शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है।व्यावसायिक  व्यवहारों को पुस्तकों में लिपिबद्ध करने की कला एवं विज्ञान ही बहीखाता है लेखा शास्त्र शेयर धारकों और प्रबंधकों आदि के लिए किसी व्यावसायिक इकाई के बारे में वित्तीय जानकारी संप्रेषित करने की कला है। लेखांकन को ‘व्यवसाय की भाषा’ कहा गया है। हिन्दी में ‘एकाउन्टैन्सी’ के समतुल्य ‘लेखाविधि’ तथा ‘लेखाकर्म’ शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। आधुनिक व्यवसाय का आकार इतना विस्तृत हो गया है कि इसमें सैकड़ों, सहस्त्रों व अरबों व्यावसायिक लेनदेन होते रहते हैं। इन लेन देनों के ब्यौरे को याद रखकर व्यावसायिक उपक्रम का संचालन करना असम्भव है। अतः इन लेनदेनों का क्रमबद्ध अभिलेख (records) रखे जाते हैं उनके क्रमबद्ध ज्ञान व प्रयोग-कला को ही लेखाशास्त्र कहते हैं। लेखाशास्त्र के व्यावहारिक रूप को लेखांकन कह सकते हैं। अमेरिकन इन्स्ट्टीयूट ऑफ सर्टिफाइड पब्लिक अकाउन्टैन्ट्स (AICPA) की लेखांकन शब्दावली, बुलेटिन के अनुसार ‘‘लेखांकन उन व्यवहारों और घटनाओं को, जो कि कम से कम अंशतः वित्तीय प्रकृति के है, मुद्रा के रूप में प्रभावपूर्ण तरीके से लिखने, वर्गीकृत करने तथा सारांश निकालने एवं उनके परिणामों की व्याख्या करने की कला है।’’ 
इस परिभाषा के अनुसार लेखांकन एक कला है, विज्ञान नहीं। इस कला का उपयोग वित्तीय प्रकृति के मुद्रा में मापनीय व्यवहारों और घटनाओं के अभिलेखन, वर्गीकरण, संक्षेपण और निर्वचन के लिए किया जाता है।
स्मिथ एवं एशबर्न ने उपर्युक्त परिभाषा को कुछ सुधार के साथ प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार ‘लेखांकन मुख्यतः वित्तीय प्रकृति के व्यावसायिक लेनदेनों और घटनाओं के अभिलेखन तथा वर्गीकरण का विज्ञान है और उन लेनदेनें और घटनाओं का महत्वपूर्ण सारांश बनाने, विश्लेषण तथा व्याख्या करने और परिणामों को उन व्यक्तियों को सम्प्रेषित करने की कला है, जिन्हें निर्णय लेने हैं।’ इस परिभाषा के अनुसार लेखांकन विज्ञान और कला दोनों ही है। किन्तु यह एक पूर्ण निश्चित विज्ञान न होकर लगभग पूर्ण विज्ञान है।
अमेरिकन एकाउन्टिग प्रिन्सिपल्स बोर्ड ने लेखांकन को एक सेवा क्रिया के रूप में परिभाषित किया है। उसके अनुसार, ‘लेखांकन एक सेवा क्रिया है। इसका कार्य आर्थिक इकाइयों के बारे में मुख्यतः वित्तीय प्रकृति की परिणामात्मक सूचना देना है जो कि वैकल्पिक व्यवहार क्रियाओं (alternative course of action) में तर्कयुक्त चयन द्वारा आर्थिक निर्णय लेने में उपयोगी हो।’
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर लेखांकन को व्यवसाय के वित्तीय प्रकृति के लेन-देनों को सुनिश्चित, सुगठित एवं सुनियोजित तरीके से लिखने, प्रस्तुत करने, निर्वचन करने और सूचित करने की कला कहा जा सकता है।

Steps in Accounting

(1) आर्थिक घटनाएॅ- व्यावसायिक संगठनों का सम्बन्ध आर्थिक/वित्तीय घटनाओं से होता है, जिन्हें मुद्रा के रूप में मापा जा सकता है। माल का क्रय, मशीनरी का क्रय, वस्तुओं एवं सेवाओं की बिक्री, इत्यादि आर्थिक घटनाएॅ है।
(2) व्यावसायिक लेन-देनों की पहचान करना – इसका अभिप्राय यह निर्धारित करना है कि किन लेन-देनों का लेखा किया जाए अर्थात उन घटनाओ की पहचान करना जिनका अभिलेखन किया जाना है।
(3) लेन-देनों का मापन – लेखा पुस्तकों में उन्हीं लेन-देनों का अभिलेखन किया जाता है, जिनका मूल्यांकन मुद्रा के रूप में सम्भव है। उदाहरण के लिए, माल की आपूर्ति हेतु आदेश देना, कर्मचारियों की नियुक्ति महत्वपूर्ण घटनाएॅ है, पर इनका लेखा नहीं किया जाता है, क्योंकि ये मुद्रा के रूप में मापनीय नहीं है।
(4) अभिलेखन- लेखा-पुस्तकों में वित्तीय स्वभाव के लेन-देनों का लेखा तिथिवार नियमानुसार किया जाता है। अभिलेखन इस प्रकार किया जाता है कि परम्परा के अनुसार इनका सारांश तैयार किया जा सके।
(5) सम्प्रेषण-लेखांकन सूचनाओं का उपयोग विभिन्न प्रकार के लोग व संगठन करते है। अतः लेन-देनों का अभिलेखन इस प्रकार किया जाता है एवं सारांश इस प्रकार तैयार किया जाता है कि लेखांकन सूचनाएॅ आन्तरिक एवं बाहय उपयोगकर्ताओं के लिए उपयोगी हो सकें। लेखांकन सूचना लेखा प्रलेखों के माध्यम से नियमित रूप से सम्प्रेषित की जाती है।
(6) संगठन- संगठन से अभिप्राय किसी व्यावसायिक उ़द्यम से है, जिसका उददेश्य लाभ कमाना है या लाभ कमाना नही है।
(7) सूचना में अभिरूचि रखने वाले उपयोगकर्ता- लेखांकन सूचना के आधार पर विभिन्न उपयोगकर्ता निर्णय लेते है। सूचनाओं के उपयोगकर्ताओं में निवेशक, लेनदार, बैक, वित्तीय संस्थाएॅ, प्रबन्धक, कर्मचारी आदि उल्लेखनीय है।
ACCOUNTING CHARECTERISTICS
1. लेखांकन व्यावसायिक सौदों के लिखने और वर्गीकृत करने की कला है
2. ये लेन-देन पूर्ण या आंशिक रूप से वित्तीय प्रकृति के होते है।
3. सौदे मुद्रा में व्यक्त किये जाते है।
4. यह सारांश लिखने, विश्लेषण और निर्वचन करने की कला हैं
5. विश्लेषण और निर्वचन की सूचना उन व्यक्तियों को सम्प्रेषित की जानी चाहिए जिन्हें इनके आधार पर निष्कर्ष या परिणाम निकालने है या निर्णय लेने है।
6  वित्तीय व्यवहारों एवं घटनाओ का अभिनिर्धरण किया जा सके 
7 लेन देनो का लेखा किया जाता है 
OBJECTIVES OF ACCOUNTING
1 लेखांकन का प्रमुख उद्देश्य वित्तीय वर्ष  के अंत में लाभ या हानि ज्ञात  है 
2 लेखांकन के द्वारा व्यापर की संपत्तियो एवं दायित्वों का ज्ञान सरलता  से हो जाता है सम्पत्तियो एवं दायित्वों की सुचना आर्थिक चिट्ठे द्वारा प्राप्त की जा सकती है 
3 लेखांकन का एक अन्य प्रमुख उद्देश्य लेखा अवधि से संबंधित समस्त व्यवहारो का लेखांकन के नियमो का पालन करते हुए नियमित रूप से एवं व्यवस्तिथ ढंग से पुस्तको में लेखा करना है 
4 वैधानिक आवश्यकताओ की पूर्ति करना 
5  वित्तीय आंकड़े उपलब्ध कराना 

लेखांकन की आवश्यकता

आधुनिक व्यापारिक क्रियाओं के सफल संचालन के लिए लेखांकन को एक आवश्यकता (छमबमेपजल) समझा जाता है। लेखांकन क्यों आवश्यक है, इसे निम्न तर्कों से स्पष्ट किया जा सकता है –
(१) व्यापारिक लेन-देन को लिखित रूप देना आवश्यक होता है- व्यापार में प्रतिदिन अनगिनत लेन-देन होते हैं, इन्हें याद नहीं रखा जा सकता। इनको लिख लेना प्रत्येक व्यापारी के लिए आवश्यक होता है। पुस्तपालन के माध्यम से इन लेन-देनों को भली-भांति लिखा जाता है।
(२) बेईमानी व जालसाजी आदि से बचाव के लिए लेन-देनों का समुचित विवरण रखना होता है – व्यापार में विभिन्न लेन-देनों में किसी प्रकार की बेईमानी, धोखाधड़ी व जालसाजी न हो सके, इसके लिए लेन-देनों का समुचित तथा वैज्ञानिक विधि से लेखा होना चाहिए। इस दृष्टि से भी पुस्तपालन को एक आवश्यक आवश्यकता समझा जाता है।
(३) व्यापारिक करों के समुचित निर्धारण के लिए पुस्तकें आवश्यक होती हैं – एक व्यापारी अपने लेन-देनों के भली-भांति लिखने, लेखा पुस्तकें रखने तथा अन्तिम खाते आदि बनाने के बाद ही अपने कर-दायित्व की जानकारी कर सकता है। पुस्तपालन से लेन-देनों के समुचित लेखे रखे जाते हैं। विक्रय की कुल राशि तथा शुद्ध लाभ की सही व प्रामाणिक जानकारी मिलती है जिसके आधार पर विक्रय-कर व आयकर की राशि के निर्धारण में सरलता हो जाती है।
(४) व्यापार के विक्रय-मूल्य के निर्धारण में पुस्तपालन के निष्कर्ष उपयोगी होते हैं – यदि व्यापारी अपने व्यापार के वास्तविक मूल्य को जानना चाहता है या उसे उचित मूल्य पर बेचना चाहता है तो लेखा पुस्तकें व्यापार की सम्पत्तियों व दायित्वों आदि के शेषों के आधार पर व्यापार के उचित मूल्यांकन के आंकड़े प्रस्तुत करती है।

लेखांकन के लाभ

1. पूंजी या लागत का पता लगाना- समस्त सम्पत्ति (जैसे मशीन, भवन, रोकड़ इत्यादि) में लगे हुए धन में से दायित्व (जैसे लेनदार, बैंक का ऋण इत्यादि) को घटाकर किसी विशेष समय पर व्यापारी अपनी पूंजी मालूम कर सकता है।
2. विभिन्न लेन-देनों को याद रखने का साधन – व्यापार में अनेकानेक लेन-देन होते हैं। उन सबको लिखकर ही याद रखा जा सकता है और उनके बारे में कोई जानकारी उसी समय सम्भव हो सकती है जब इसे ठीक प्रकार से लिखा गया हो।
3. कर्मचारियों के छल-कपट से सुरक्षा- जब लेन-देनों को बहीखाते में लिख लिया जाता है तो कोई कर्मचारी आसानी से धोखा, छल-कपट नहीं कर सकता और व्यापारी को लाभ का ठीक ज्ञान रहता है। यह बात विशेषकर उन व्यापारियों के लिये अधिक महत्व की है जो अपने कर्मचारियों पर पूरी-पूरी दृष्टि नहीं रख पाते हैं।
4. समुचित आयकर या बिक्री कर लगाने का आधार- अगर बहीखाते ठीक रखे जायें और उनमें सब लेनदेन लिखित रूप में हों तो कर अधिकारियों को कर लगाने में सहायता मिलती है क्योंकि लिखे हुए बहीखाते हिसाब की जांच के लिए पक्का सबूत माने जाते हैं।
5. व्यापार खरीदने बेचने में आसानी – ठीक-ठीक बहीखाते रखकर एक व्यापारी अपने कारोबार को बेचकर किसी सीमा तक उचित मूल्य प्राप्त कर सकता है। साथ ही साथ खरीदने वाले व्यापारी को भी यह संतोष रहता है कि उसे खरीदे हुऐ माल का अधिक मूल्य नहीं देना पड़ा।
6. अदालती कामों में बहीखातों का प्रमाण (सबूत) होना- जब कोई व्यापारी दिवालिया हो जाता है (अर्थात् उसके ऊपर ऋण, उसकी सम्पत्ति से अधिक हो जाता है) तो वह न्यायालय में बहीखाते दिखाकर अपनी निर्बल स्थिति का सबूत दे सकता है और वह न्यायालय से अपने को दिवालिया घोषित करवा सकता है। उसके ऐसा करने पर उसकी सम्पत्ति उसके महाजनों के अनुपात में बंट जाती है और व्यापारी ऋणों के दायित्व से छूट जाता है। यदि बहीखाते न हों तो न्यायालय व्यापारी को दिवालिया घोषित करने में संदेह कर सकता है।
7. व्यापारिक लाभ-हानि जानना – बही खातों में व्यापार व लाभ-हानि खाते निश्चित समय के अन्त में बनाकर कोई भी व्यापारी अपने व्यापार में लाभ या हानि मालूम कर सकता है।
8. पिछले आँकड़ों से तुलना – समय-समय पर व्यापारिक आँकड़ों द्वारा अर्थात् क्रय-विक्रय, लाभ-हानि इत्यादि की तुलना पिछले सालों के आंकड़ों से करके व्यापार में आवश्यक सुधार किए जा सकते हैं।
9. वस्तुओं की कीमत लगाना- यदि व्यापारी माल स्वयं तैयार कराता है और उन सब का हिसाब बहीखाते बनाकर रखता है तो उसे माल तैयार करने की लागत मालूम हो सकती है। लागत के आधार पर वह अपनी निर्मित वस्तुओं का विक्रय मूल्य निर्धारित कर सकता है।
10. आर्थिक स्थिति का ज्ञान- बहीखाते रखकर व्यापारी हर समय यह मालूम कर सकता है कि उसकी व्यापारिक स्थिति संतोषजनक है अथवा नहीं।

ACCOUNTING CONCEPT
लेखांकन अवधारणा से अभिप्राय उन मूलभूत परिकल्पनाओं एवं नियमों तथा सिद्धांतों से है जो व्यवसायिक लेने देना एवं अभिलेखन एवं खाते तैयार करने का आधार होते है ।

मुख्य उदद्ेश्य लेखांकन अभिलेखों में एकरूपता एवं समरूपता बनाए रखना है । यह अवधरणाएँ को वर्षो के अनुभव से विकसित किया गया है, इसलिए यह सार्वभौमिक नियम है। नीचे विभिन्न लेखांकन अवधारणाएँ दी गर्इ है। जिनका आगें के अनुभावों में वर्णन किया गया है।
  1. व्यावसायिक इकार्इ अवधारणा
  2. मुद्रा माप अवधारणा
  3. * चालू व्यापार अवधारणा
  4. * लेखांकन अवधि अवधारणा
  5. * लेखांकन लागत अवधारणा
  6. * द्विपक्षीय अवधारणा
  7. * वसूल अवधारणा
  8. * उपार्जन अवधारणा
  9. * मिलान अवधारणा

* व्यावसायिक इकार्इ अवधारणा

इस अवधारणा के अनुसार लेखांकन के लिए भी व्यावसायिक इकार्इ एवं इसका स्वामी दो पृथक स्वतन्त्र इकार्इ। अत: व्यवसाय एवं इसके स्वामी के व्यक्तिगत लेन-देन अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए जब भी स्वामी व्यवसाय में से रोकड़/वस्तुओं को अपने निजी प्रयोग के लिए ले लाता हैं तो इसे व्यवसाय का व्यय नहीं माना जाता। अत: लेखांकन अभिलेखों को व्यावसायिक इकार्इ की दृष्टि से लेखांकन पुस्तकों में लिखा जाता है न कि उस व्यक्ति की दृष्टि से जो उस व्यवसाय का स्वामी है । यह अवधारणा लेखांकन का आधार है। आइए एक उदाहरण लें। माना श्री साहू ने 1,00,000 रू. का माल खरीदा, 20,000 रू. का फर्नीचर खरीदा तथा 30,000 य. का यन्त्र एवं मशीने खरीदें 10,000 रू. उसके पास रोकड़ है। यह व्यवसाय की परिसंपत्तियाँ है न कि स्वामी की। व्यावसायिक इकार्इ की अवधारणा के अनुसार 1,00,000 रू. की राशि व्यवसाय की पूँजी अर्थात् व्यवसाय पर स्वामी के प्रति देनदारी मानी जाएगी।

माना वह 5000 रू. नकद तथा 5000 रू. की वस्तुएँ व्यापार से घरेलु खर्चे के लिए ले जाता है। स्वामी द्वारा व्यवसाय में से रोकड़ /माल को ले जाना उसका निजी व्यव है। यह व्यवसाय नहीं है। इसे आहरण कहते हैं। इस प्रकार व्यावसायिक इकार्इ की अवध् ाारणा यह कहती है कि व्यवसाय और उसके स्वामी अपने लिएअथवा अपने परिवार के लिए व्यवसाय में से कोर्इ खर्च करता है। तो इसे व्यवसाय का खर्च नहीं बल्कि स्वामी का खर्च माना जाएगा तथा इसे आहरण के रूप में दिखाता जाएगा।

महत्व

नीचे दिए गए बिन्दु व्यावसायिक इकार्इ की अवधारणा के महत्व पर प्रकाश डालते है :
  • यह अवधारणा व्यवसाय के लाभ के निर्धारण में सहायक होती है। क्योकि व्यवसाय में केवल खर्चों एवं आगम का ही लेखा किया जाता है तथा सभी निजी एवं व्यक्तिगत खर्चों की अनदेखी की जाती है । 
  • यह अवधारणा लेखाकारों पर स्वामी की निजी/व्यक्तिगत लेन देना के अभिलेखन पर रोक लगाती है । 
  • यह व्यापारिक दृष्टि से व्यावसायिक लेन-देनों के लेखा करने एवं सूचना देने के कार्य को आसान बनाती है।
  • यह लेखांकन, अवधारणों परिपाटियों एवं सिद्धांतों के लिए आधार का कार्य करती है।

* मुद्रा माप अवधारणा

मुद्रा माप अवधारणा के अनुसार व्यावसायिक लेन-देन मुद्रा में होने चाहिए। अर्थात् देश की मुद्रा में। हमारे देश में यह लेन-देन रूपये में होते है। इस प्रकार से मुद्रा माप अवधारणा के अनुसार जिन लेन-देनों को मुद्रा के रूप हमें दर्शाया जा सकता है उन्हीं का लेखा पुस्तकों में लेखांकन किया जाता है। उदाहरण के लिए 2,00,000 रू. का माल बेचा, 1,00,000 रू. का कच्चा माल खरीदा, 1,00,000 रू किराए के भुगतान आदि मुद्रा में व्यक्त किय गए है। अत: इन्है। लेखापुस्तकों में लिखा जाएगा। लेकिन जिन लेन-देनों को मुद्रा में नहीं दर्शाया जा सकता उनका लेखापुस्तका ें में नही किया जाता। उदाहरण के लिए कर्मचारियों की र्इमानदारी इन्हें मुद्रा में नहीं मापा जा सकता , जबकि इनका भी व्यवसाय के लाभ तथा हानि पर प्रभाव पड़ता है ।

इस अवधारणा का एक पहलू यह भी है कि लेन-देनों का लेखा-जोखा भौतिक इकाइयों में नही बल्कि मुद्रा इकाइयों में रखा जाता है। उदाहरण के लिए माना 2006 के अंत में एक संगठन के पास 10 एकड़ जमीन पर एक कारखना है, कार्यालय के लिए एक भवन है जिसमें 50 कमरे हैं 50 निजी कम्प्यूटर है, 50 कुर्सी तथ मेजे हैं 100 कि.ग्रामकच्चा माल है। यह सभी विभिन्न इकाइयों में दर्शाये गए हैं। लेकिन लेखांकन में इनका लेखा-जोखा मुद्रा के रूप में अर्थात् रूपयों में रखा जाता है। इस उदाहरण में कारखानों की भूमि की लागत 12 करोड़ रूपए, कार्यालय के भवन की 10 करोड़ रू. कम्प्यूटरों की 10 लाख रू. कार्यालय की कुर्सी तथा मेजों की लागत 2 लाख रू. तथा कच्चे माल की लागत 30 लाख् रू. है। इस प्रकार से सगं ठन की कुल परिसंपत्तियों का मूल्य 22 करोड 2 लाख् रूपया है। इस प्रकार से लेखा पुस्तकों में कवे ल उन्ही लेन-देन का लेखाकंन किया जाता है जिन्है। मदु ा्र में दशार्य ा जा सके वह भी केवल मात्रा में मुदा्र मापन की अवधारणा यह स्पष्ट करती है कि मुद्रा ही एक ऐसा मापदण्ड है जिसमें हम व्यवसाय में खरीदी गर्इ वस्तुओं, सम्पत्तियों, व्यवसाय के देनदारों-लेनदारों, समय समय पर प्राप्त होने वाली आय व किये जाने वाले व्ययों का योग लगा सकते है तथा व्यवसाय के सम्पूर्ण हिसाब को सर्वसाधारण के समझ के अनुसार रख सकते है।

महत्व 

मुद्रा माप अवधारणा के महत्व को नीचे दिए गए बिन्दुओ के द्वारा दर्शाया गया :
  1. यह अवधारणा लेखाकारों का मार्गदर्शन करती है कि किसका लेखा किया जाए और किसका नहीं । 
  2. यह व्यावसायिक लेन-देनों के अभिलेखन में एकरूपता लाने में सहायक होता है । 
  3. यदि सभी व्यावसायिक लेन-देनों को मुद्रा में दर्शाया जाता है तो व्यावसायिक इकार्इ ने जो खाते बनाए हैं उन्हें समझना आसान होगा ।
  4. इससे किसी भी फर्म के दो भिन्न अवधियों के और दो भिन्न फमोर्ं के एक ही अवधि के व्यावसायिक निष्पादन की तुलना करना सरल हो जाता है । 

*  चालू व्यापार अवधारणा 

इस अवधारणा का मानना है कि व्यावसायिक इकार्इ अपनी गतिविधियों को असीमित समय तक चलाती रहेगी। इसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यवसाय इकार्इ के जीवन में निरंतरता है, इसलिए जल्दी ही इसका समापन नहीं होगा। यह लेखांकन की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है क्योंकि इसी के आधार पर स्थिति विवरण में सम्पत्तियों के मूल्य को दिखाया जाता है। उदाहरण के लिए माना कि एक कम्पनी एक संयन्त्र एवं मशीनरी 1,00,000 रू. में खरीदती है जिसका जीवन काल 10 वर्ष का है । इस अवधारणा के अनुसार कुछ राशि को प्रतिवर्ष खर्च के रूप में दिखाया जाएगा, जबकि शेष को एक सम्पत्ति के रूप में। अत: हम कह सकते हैं कि यदि किसी मद पर कोर्इ राशि खर्च की जाती है जिसका व्यवसाय में कर्इ वर्ष तक उपयोग होगा तो इस राशि खर्च की जाती है आगम में से समायोजित करना तर्कसंगत नहीं होगा जिस वर्ष में इसका क्रय किया गया है। इसके मूल्य के एक भाग को ही उस वर्ष व्यय के रूप में दिखाया जाएगा जिस वर्ष इसको क्रय किया गया है तथा शेष को सम्पत्ति में दिखाया जाएगा ।

महत्व 

  • इस अवधारणा की सहायता से वित्तीय विवरण तैयार किए जाते हैं । 
  • इस अवधारणा के आधार पर स्थायी सम्पत्तियों पर अवक्षयण लगाया जाता है। 
  • इसस े निवेशकों को बड़ी सहायता मिलती है क्योकि यह उन्हें विश्वास दिलाया है कि उनको उनके निवेश पर आय प्राप्त होती रहेगी । 
  • इस अवधारणा के न होने पर स्थायी सम्पत्तियों की लागत को उनके क्रय के वर्ष में व्यय माना जाएगा ।
  • व्यवसाय का आकलन भविष्य में उसकी लाभ अर्जन क्षमता से किया जाता है। 
  • व्यापार के माल और सम्पत्ति तथा हिसाब-किताब के मूल्य के बारे में अनुमाननही लगाता । 

*  लेखांकन अवधि अवधारणा

लेखा पुस्तकों में लेन-देनों का लेखा इस मान्यता पर किया जाता है कि उन लेन-देनों के फलस्वरूप एक निश्चित अवधि के लिए लाभ का निर्धारण किया जाता है। इसे ही लेखा अवधि अवधारणा कहते हैं। इस अवधारणा के अनुसार स्थिति विवरण एवं लाभ हानि खाता को नियमित रूप से निश्चित अवधि की समाप्ति पर बनाना चाहिए। यहाँ इसके कर्इ उद्देश्य हैं जैसे कि लाभ का निर्धारण, वित्तीय स्थिति का निर्धारण, कर की गणना आदि। लेखा अवधि अवधारणा में व्यापार के अनिश्चित जीवन को कर्इ भागों में बांट दिया जाता है। इन भागों को लेखांकन काल/लेखा अवधि कहा जाता है। एक वर्ष, छ: महीने, तीन महीने मासिक आदि हो सकते है।। सामान्यता एक लेखा अवधि एक वर्ष की ली जाती है जो कि एक कलेण्डर वर्ष अथवा वित्तीय वर्ष हो सकती है। व्यवसाय की समाप्ति पर ही वह लगार्इ गर्इ पूँजी एवं व्यवसाय समाप्त होने के समय उपलब्ध पूँजी की तुलना कर व्यवसाय के परिमापों को जान सकता है। अत: लेखांकन की एक निश्चित अवधि होनी चाहिए ना कि उक्त अवधि के परिणामों को प्राप्त किया जा सके तथा वित्तीय स्थिति का सही आकलन सम्भव हो ।

वर्ष का प्रारम्भ आदि 1 जनवरी से होता है तथा 31 दिसम्बर को समाप्त होता है तो यह केलेण्डर वर्ष कहलाता है। वर्ष यदि 1 अप्रैल को प्रारम्भ होता है तथा अगले वर्ष में 31 मार्च को समाप्त होता है तो वित्तीय वर्ष कहलाता है ।
लेखा अवधि अवधारणा के अनुसार लेखा-पुस्तकों में लेन-देनों का लेखा एक निश्चित अवधि को ध्यान में रखकर किया जाता है। अत: इस अवधि में खरीदी बेची गर्इ वस्तुओं का भुगतान, किराया वेतन आदि का लेखा उस अवधि के लिए ही किया जाताहै ।

महत्व 

  • यह व्यवसाय की भविष्य की संभावनाओं के पूर्वानुमान में सहायक होता है । 
  • यह व्यवसाय की एक निश्चित समय अवधि की आय पर कर निर्धारण मे सहायक होता है। 
  • यह एक निश्चित अवधि के लिए व्यवसाय के निश्पादन मूल्याँकन एवं विष्लेशण करने में बैंक, वित्तीय संस्थान, लेनदार आदि की सहायता करता है । 
  • यह व्यावसायिक इकाइयों को अपनी आय को नियमित मध्यान्तर पर लाभांश रूप में वितरण करने में सहायता प्रदान करता है ।

* लेखांकन लागत अवधारणा 

लेखांकन लागत अवधारणा के अनुसार सभी सम्पत्तियों का लेखा बहियों में उनके क्रय मूल्य पर लेखाकंन किया जाता है न कि उनके बाजार मूल्य पर। क्रय मूल्य में उसका अधिग्रहण मूल्य, परिवहन एवं स्थापित करने की लागत सम्मिलित होती है। इसका अर्थ हुआ कि स्थायी सम्पत्तियाँ जैसे कि भवन, संयंत्र एवं मशीनें, फर्नीचर आदि को लेखा पुस्तकों में उन मूल्यों पर लिखा जाता है जो कि उनको प्राप्त करने के लिए भुगतान किया गया है । उदाहरण के लिए माना लि ़ ने जूता बनाने की एक मशीन 5,00,000 रू में खरीदी, 1000 रू की राशि मशीन को कारखाने तक लाने पर व्यय किए गए। इसके अतिरिक्त 2000 रू इसकी स्थापना पर व्यय किए। कुल राशि जिस पर मशीन का लेखा पुस्तकों में अभिलेखन किया जाएगा वह इन सभी मदों का कुल योग होगा जो कि 503000 रू हैं। यह लागत ऐतिहासिक लागत भी कहलाती है। माना कि अब इसका बाजार मूल्य 90000 रू है तो इसे इस मूल्य पर नहीं दिखाया जाएगा । इसे और स्पष्ट कर सकते हैं कि लागत से अभिप्राय: नर्इ सम्पत्ति के लिए उसकी मूल अथवा उसको प्राप्त करने की लागत है तथा उपयोग की गर्इ सम्पत्तियों की लागत का अर्थ है मूल लागत घटा अवक्षयण । लागत अवधारणा को एतिहासिक लागत अवधारणा भी कहते हैं । यह लागत अवधारणा का प्रभाव है कि यदि व्यावसायिक इकार्इ संपत्ति को प्राप्त करने के लिए कोर्इ भी भुगतान नहीं करती है तो यह मद लेखा बहिमों में नही दर्शाया जायगा । अत: ख्याति को बहियों में तभी दर्शाया जाता हैं, जब व्यवसाय ने इस अदृश्य सम्पत्ति को मूल्य देकर खरीदा हैं ।


 महत्व 
  • इस अवधारणा के अनुसार संपत्ति को उसके क्रय मूल्य पर दिखाया जाता है जिसको सहायक प्रलेखों से प्रमाणित किया जा सकता है । 
  • इससे स्थायी सम्पत्तियों पर अवक्षयण की गणना करने में सहायता मिलती हैं । 
  • लागत अवधारणा के परिणामस्वरूप सम्पत्ति को लेखा बहियों में नहीं दिखायाजाएगा यदि यवसाय ने इसको पा्रप्त करने के लिए कोर्इ भुगतान नहीं किया है। 

* द्विपक्षीय अवधारणा

 इस सिद्धातं के अनुसार प्रत्येक व्यावसायिक लेन-देन के दो पक्ष या दो पहलू होते हैं। अर्थात् प्रत्येक लेन-देन दो पक्षों को प्रभावित करता है । प्रभावित दो पक्षो या खातों में से एक खाते को डेबिट किया जाता है तथा दूसरे खाते को क्रेडिट किया जाता है । जैसे - प्रशांत ने 50,000, नकद लगाकर व्यवसाय प्रारम्भ किया । इस व्यवहार में एक पक्ष रोकड़ व दूसरा पक्ष रोकड़ लगाने वाले प्रशांत का होगा । एक ओर तो रोकड़ सम्पत्ति है तथा दूसरी ओर यह व्यापार का दायित्व माना जायेगा, क्योंकि रोकड़ व्यापार की नहीं है । अत: व्यवाहार का समीकरण होगा । सम्पित्त् दायित्व व्यवसाय के सभी लेन-देन इस अवधारणा के आधार पर लिखे जाते है। । लेखाकर्म की दोहरा लेखा प्रणाली का जन्म इसी अवधारणा के कारण हुआ है । इस सिद्धांत के कारण ही स्थिति विवरण के दोनों पक्ष दायित्व और सम्पत्ति हमेशा बराबर होते हैं । सिद्धांतानुसार निम्नांकि लेखांकन समीकरण सत्य सिद्ध होते है ।
सम्पत्तियाँ =दायित्व + पूँजी  या पूँजी = सम्पत्तियाँ - दायित्व
 Assets =Liabilities + Capital = Assets – Liabilities 

 द्विपक्षीय लेखांकन का आधारभूत एवं मूलभूत सिद्धांत है। यह व्यावसायिक लेन-देनों को लेखांकन पुस्तकों में अभिलेख्ति करने का आधार प्रदान करता है। इस अवध् ाारणा के अनुसार व्यवसाय के प्रत्येक लेन-देन का प्रभाव दो स्थानों पर पड़ता है अर्थात् यह दो खातों को एक-दूसरे के विपरीत प्रभावित करता है। इसीलिए लेन-देनों का दो स्थानों पर अभिलेखन करना होगा। उदाहरण के लिए मान नकद माल खरीदा। इसके दो पक्ष है :
  1. नकद भुगतान 
  2. माल को प्राप्त करना।
 इन दो पक्षों का अभिलेखन किया जाना है। द्विपक्षीय अवधारणा को मूलभूत लेखांकन समीकरण के रूप में प्रर्दशित किया जा सकता है ।
परिसंपत्तियाँ = देयताएँ + पूँजी 

उपर्युक्त लेखा सभीकरण के अनुसार व्यवसाय की परिसंपत्तियाँ का मूल्य सदैव स्वामी एवं बाह्य लेनदारों की दावे की राशि के बराबर होता है। यह दावा पूँजी अथवा स्वामित्व पूँजी के नाम से जाना जाता है तथा बाह्य लोगों की दावेदारी को देयताएँ अथवा लेनदारों की पूँजी कहते है। द्विपक्षीय अवधारणा लेन-देन के दो पक्षों की पहचान करने में सहायक होती है जो लेखा पुस्तकों में लने -दने के अभिलेखन में नियमों को पय्र ोग करने मे  सहायक होता है।द्विपक्षीय अवधारणा का प्रभाव है कि प्रत्येक लेन-देन का समपत्तियाँ एवं देयताओं पर समान प्रभाव इस प्रकार से पड़ता है कि कुल सम्पत्तियाँ सदा कुल देयताओं के बराबर होते है।आइए कुछ और व्यावसायिक लेन-देनों का उसके द्विपक्षीय रूप में विश्लेषण करे।

1. व्यवसाय के स्वामी ने पूँजी लगार्इ । 
  • अ. रोकड़ की प्राप्ति
  • ब. पूँजी में वृद्धि (स्वामीगत पूँजी)
2. मशीन खरीदी भुगतान चैक से किया लेन-देन के दो पक्ष है : 
  • अ. बैंक शेष में कमी
  • ब. मशीन का स्वामित्व
3. नकद माल बेचा दो पक्ष है :
  • अ.रोकड़ प्राप्त हुर्इ
  • ब. ग्राहक को माल की सुपुर्दगी की गर्इ
4. मकान मालिक को किराए का भुगतान किया दो पक्ष है : 
  • अ.रोकड़ का भुगतान
  • ब. किराया (व्यय किया)
लेन-देन के दोनों पक्षों के पता लग जाने के पश्चात् लेखांकन के नियमों को लागू करना तथा लेखा पुस्तकों में उचित अभिलेखन करना सरल हो जाता है । द्विपक्षीय अवधारणा का अर्थ है कि प्रत्येक लेन-देन का सम्पत्तियाँ एवं देवताओं पर इस प्रकार से समान प्रभाव पड़ता है कि व्यवसाय की कुल परिसम्पत्तियाँ सदा उसकी देयताओं के बराबर होंगी ।
  • वेतन का भुगतान किया
  • किराए का भुगतान किया
  • किराया प्राप्त हुआ

* वसूली अवधारणा 

इस अवधारणा के अनुसार किसी भी व्यावसायिक लेन-देन से आगम को लेखांकन अभिलेखो में उसके वसूल हो जाने पर ही सम्मिलित किया जाना चाहिए । वसूली शब्द का अर्थ है राशि को प्राप्त करने का कानूनी अधिकार प्राप्त हो जाना माल का विक्रय वसूली है आदेश प्राप्त करना वसूली नहीं हैदूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं :आगम की वसूली मानी जाएगी जबकि वस्तुओं अथवा सेवाओं की बिक्री या फिर दोनो पर या तो नकद राशि प्राप्त हो चुकी है अथवा नकद प्राप्ति का अधिकार प्राप्त हो चुका हैं । आइए नीचे दिए गए उदाहरणों का अध्ययन करें :
  1. एन पी  ज्वैलर्स को 500000 रू  के मूल्य के सोने के आभूषणों की आपूर्ति करने का आदेश प्राप्त हुआ। उन्होनें 200000 रू  के मूल्य के आभूषणों की आपूर्ति 31 दिसम्बर, 2005 मे कर दी और शेष की आपूर्ति जनवरी 2006 में की ।
  2. बंसल ने 2006 में 100000 रू  का माल नकद बेचा तथा माल की सुपुर्दगी इसी वर्ष में की । 
  3. अक्षय ने वर्ष समाप्ति 31 दिसम्बर, 2005 में 50000 रू  का माल उधार बेचा । 
माल की सुपुर्दगी 2005 में की गर्इ लेकिन भुगतान मार्च 2006 में प्राप्त हुआ । आइए अब वर्ष समाप्ति 31 दिसम्बर, 2005 के लिए सही आगम वसूली का निर्धारण करने के लिए उपरोक्त उदाहरणों का विश्लेषण करें ।
  1. एन. पी ज्वैलर्स की वर्श 2005 की आगम राशि 200000 रू. है । मात्र आदेश प्राप्तकरना आगम नहीं माना जब तक कि माल की सुपुर्दगी न की गर्इ हो । 
  2. वर्ष 2005 के लिए बंसल की आगम राशि 1,00,000 रू. है क्योंकि माल की वर्ष 2005 में सुपर्दगी की गर्इ । रोकड़ भी उसी वर्ष में प्राप्त हो गर्इ । 
  3. अक्षय का वर्ष 2005 का आगम 50000 रू. है क्योकि उपभोक्ता को वर्ष 2005 में माल की सुपर्दगी की गर्इ । 
उपर्युक्त उदाहरणों में आगम की वसूली उस समय मानी जाएगी जबकि माल ग्राहक को सौप दिया हो ।
वूसली अवधारणा के अनुसार आगम की वसूली उस समय मानी जाएगी जबकि वस्तुओं अथवा सेवाओं की वास्तव में सुपुर्दगी की गर्इ है ।
संक्षेप में कह सकते हैं कि वसूली वस्तुओं अथवा सेवाओं के नकद अथवा उधार बेच देने के समय होती है । इसका अभिप्राय: प्राप्य के रूप में सम्पत्तियों के आन्तरिक प्रवाह से है ।

महत्व 

  1.  यह लेखाकंन सूचना को अधिक तर्क संगत बनाने में सहायक है ।
  2. इसके अनुसार वस्तुओं के क्रेता को सुपुर्द करने पर ही अभिलेखन करना चाहिए । 

* उपार्जन अवधारणा 

उपार्जन से अभिप्राय: किसी चीज की देनदारी का बन जाना है विशेष रूप से वह राशि जिसका भुगतान अथवा प्राप्ति लेखा वर्ष के अन्त में होनी है । इसका अर्थ हुआ कि आगम तभी मानी जाएगी जबकि निश्चित हो जाए भले ही नकद प्राप्ति हुर्इ है या नहीं। इसी प्रकार से व्यय को तभी माना जाएगा जबकि उनकी देयता बन जाए । फिर भले ही उसका भुगतान किया गया है अथवा नहीं । दोनों ही लेन-देन का उस लेखा वर्ष में अभिलेखन होगा जिससे वह सम्बन्धित है । इसीलिए उपार्जन अवधारणा नकद की वास्तविक प्राप्ति तथा प्रापित के अधिकार तथा व्ययों के वास्तविक नकद भुगतान तथा भुगतान के दायित्व में अन्तर करता है ।

लेखांकन में उपार्जन अवधारणा अन्तर्गत यह माना जाता है कि आगम की वसूली सेवा या वस्तुओं के विक्रय के समय होगी न कि जब रोकड़ की प्राप्ति होती है । उदाहरण के लिए माना एक फर्म ने 55000 रू. का माल 25 माचर्, 2005 को बेचा लेकिन भुगतान 10 अप्रैल, 2005 तक प्राप्त नहीं हुआ । राशि देय है तथा इसका फर्म को बिक्री की तिथि अर्थात् 25 मार्च, 2005 को भुगतान किया जाना है । इसको वर्ष समाप्ति 31 मार्च, 2005 की आगम में सम्मिलित किया जाना चाहिए । इसी प्रकार व्ययों की पहचान सेवाओं की प्राप्ति के समय की जाती है न कि जब इन सेवाओं का वास्तविक भुगतान किया जाता है । उदाहरण के लिए माना फर्म ने 20000 रू. की लागत का माल 29 मार्च, 2005 को प्राप्त किया लेकिन 2 अप्रैल, 2005 को किया गया । उपार्जन अवधारणा के अनुसार व्ययों का अभिलेखन वर्श समाप्ति 31 मार्च 2005 के लिए किया जाना चाहिए जबकि 31 मार्च, 2005 तक कोर्इ भुगतान प्राप्त नहीं हुआ है।

यद्यपि सेवाएँ प्राप्त की जा चुकी है तथा जिस व्यक्ति का भुगतान किया जाना है उसे लेनदार दिखाया गया है ।
विस्तार से उपार्जन अवधारणा की मांग है कि आगम की पहचान उस समय की जाती है जबकि उसकी वसूली हो चुकी हो और व्ययों की पहचान उस समय की जाती है जबकि वह देय हों तथा उनका भुगतान किया जाना हो न कि जब भुगतान प्राप्त किया जाता है अथवा भुगतान किया जाता है ।

महत्व

इससे एक समय विशेष के वास्तविक व्यय एवं वास्तविक आय को जान सकते हैं। इससे व्यवसाय के लाभ का निर्धारण करने में सहायता मिलती है ।

* मिलान अवधारणा 

मिलान अवधारणा के अनुसार आगम के अर्जन के लिए जो आगम एवं व्यय कि जाए वह एक ही लेखा वर्ष से सम्बन्धित होने चाहिए। अत: एक बार यदि आगम की प्राप्ति हो गर्इ है तो अगला कदम उसको सम्बन्धित लेखा वर्ष में आबटंन करना है और यह उपार्जन के आधार पर किया जा सकता है।

यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि व्यवसाय में अर्जित आगम व किये गए व्ययों को कैसे सम्बन्धित किया जाए। आगम व व्ययों का मिलान करते समय सर्वप्रथम एक निश्चित अवधि की आगम को निर्धारित करना चाहिए इसके बाद इस आगम को प्राप्त करने के लिए किये गए व्ययों को निर्धारित करना चाहिये। अर्थात् आगम का व्ययों से मिलान करना चाहिए, न कि व्ययों का आगम से। सिद्धांत के अनुसार आगम का व्ययों से मिलान करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाना आवष्यक है।
लाभ-हानि खाते में जब आगम की किसी मद को आय पक्ष में लिखा जाता है तो उस आगम को प्राप्त करने के लिए किये गए व्यय को भी व्यय में लिखा जाना चाहिए। भले ही व्यय का नगद भुगतान किया गया हो या भुगतान न किया गया हो। अर्थात् अदत्त व्यय (Outstandingexpense) को भी लिखा जाना चाहिए ।

2. जब भुगतान की गर्इ किसी व्यय राशि का कुछ भाग आगामी वर्ष में आगम का सृजन करने वाला हो को ऐसे व्यय भाग को आगामी वर्ष का व्यय माना जाना चाहिए तथा चालू वर्ष में इसको चिट्ठे (Balance sheet) के सम्पत्ति पक्ष में दर्शाना चाहिए।

3. वर्ष के अन्त में जो माल बिकने से रह जाता है, ऐस माल सम्पूर्ण लागत को आगामी वर्ष की लागत मानकर इसे आगामी वर्ष के हिसाब में शामिल किया जाना चाहिए ।

4. आगम की ऐसी कोर्इ मद जिसके लिए माल या सेवाओं का हस्तान्तरण आगामी वर्ष में किया जाना है तो इस आगम को चालू वर्श की आगम नहीं मानना चाहिए बल्कि इसे चालू वर्ष के दायित्वों में सम्मिलित करना चाहिए ।
आइए एक व्यवसाय के दिसम्बर 2006 के निम्नलिखित लेन-देनो  का अध्ययन करो 
  1. बिक्री : नकद 2000 रू. एवं उधार 1000 रू. 
  2. वेतन भुगतान 350 रू. किया 
  3. कमीश्न का भुगतान 150 रू. किया 
  4. ब्याज प्राप्त 50 रू. किया 
  5. 140 रू. किराया प्राप्त किया जिसमें से 40 रू. 2007 के लिए है ।
  6. भाड़े का भुगतान 20 रू. किया 
  7. पोस्टेज 30 रू. 
  8. 200 रू. किराए के दिए जिसमें से 50 रू. 2005 के लिए दिए । 
  9. वर्ष में नकद माल 1500 रू. एवं उधार 500 रू. खरीदा । 
  10. मशीन पर अवक्षयण 200 रू. लगा । 

महत्व 

  1. यह दिशा प्रदान करता है कि किसी अवधि विशेष के सही लाभ-हानि निर्धारण के लिए व्ययों का आगम से  से किस प्रकार से मिलान किया जाए । 
  2.  यह निवेशक/अंशधारियों को व्यवसाय के सही लाभ अथवा हानि को जानने में सहायक होता है ।
ACCOUNTING TERMINOLOGY

Business(व्‍यवसाय ) : साधारणत: ‘व्यवसाय’ शब्द से हमारा मतलब उन सभी मानवीय क्रियाओं से है जो कि धन उपार्जन के लिए  की जाती हैं।उदाहरणार्थ-कारखानों में विभिन्न तरह के माल को बनाना, किसानों द्वारा अनाज की उत्पत्ति किया जाना 
1.Assets (सम्पत्ति) : सम्पत्तियो से आशय बिजनेस के आर्थिक स्त्रोत से है जिन्हें मुद्रा में व्यक्त किया जा सकता है, जिनका मूल्य होता है और जिनका उपयोग व्यापर के संचालन व आय अर्जन के लिए किया जाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सम्पत्तियाँ वे स्त्रोत हैं जो भविष्य में लाभ पहुँचाते हैं।
उदाहरण के लिए, मशीन, भूमि, भवन, ट्रक, आदि।
assets को दो प्रकार की होती है – a. Fixed Assets (स्थायी सम्पत्तियां ):  फिक्स्ड असेट वे असेट्स होती है जिन्हें लंबे समय के लिए रखा जाता है ,फिक्स्ड असेट को व्यवसाय हेतु प्रयुक्त किया जाता है और संचालन की सामान्य प्रकिया में दुबारा  बिक्री नहीं की जाती है।
उदाहरण- भूमि, भवन, मशीनरी, संयन्त्र, फर्नीचर
b.  Current Assets (चालू संपत्तियां) : करंट असेट्स वे असेट्स होती है जिन्हें कम समय के लिए रखा जाता है करंट असेट की संचालन की सामान्य प्रकिया में दुबारा बिक्री  की जाती है।
उदाहरण- देनदार, पूर्वदत्त व्यय, स्टॉक, प्राप्य बिल, आदि।
2. Liabilities(दायित्व): स्वामी के धन के अतिरिक्त बिज़नेस का वित्तीय दायित्व लाइबिलिटी कहलाता है। वह, धन जो व्यावसायिक उपक्रम को दूसरों को देना है, दायित्व कहा जाता है ,इस प्रकार दायित्व देयताएँ हैं, ये सभी राशियाँ हैं, जो लेनदारों को भविष्य में देय हैं।

उदाहरण- लेनदार, देय बिल, ऋण एवं अधिविकर्ष इत्यादि।
3.Capital  (पूँजी) : उस धनराशि को पूँजी कहा जाता है जिसे व्यवसाय का स्वामी व्यवसाय में लगाता है। इसी राशि से व्यवसाय प्रारम्भ किया जाता है।
5. Goods (माल): ऐसी सभी चीजे गुड्स के अंतर्गत शामिल होती है जिन्हें पुनः विक्रय के लिए खरीदा जाता है ।अर्थात जिन वस्तुओ को व्यापारी खरीदते या बेचते है ।
उदाहरण -कच्चा माल, विनिर्मित वस्तुएँ अथवा सेवाएँ।
6. Sales (बिक्री) : विक्रय अथवा बिक्री विपणन की एक प्रक्रिया है जिसमें कोई उत्पाद अथवा सेवा को धन अथवा किसी अन्य वस्तु के प्रतिफल के रूप में दिया जाता है। बिक्री दो प्रकार की हो सकती है ।
a.Cash sales(नकद विक्रय )
b.Credit sales(उधार विक्रय)
7. Revenue (आय): यह व्यवसाय में कस्टमर्स को अपने उत्पादों की बिक्री से अथवा सेवाएँ उपलब्ध कराए जाने से अर्जित की गई राशियाँ होती हैं। इन्हें सेल्स रेवेन्यूज कहा जाता है। कहीं व्यवसायों के लिए रेवेन्यूज के अन्य आइटम्स एवं सामान्य स्त्रोत बिक्री, शुल्क, कमीशन, व्याज, लाभांश, राॅयल्टीज,प्राप्त किया जाने वाला किराया इत्यादि होते हैं।
8. Expense (व्यय) :आगम की प्राप्ति के लिए प्रयोग की गई वस्तुओं एवं सेवाओं की लागत को व्यय कहते हैं। ये वे लागते होती है जिन्हें किसी व्यवसाय से आय अर्जित करने की प्रकिया में व्यय किया जाता है। सामान्यत: एक्सपेसेंज को किसी अकाउंटिंग अवधि के दौरान असेट्स के उपभोग अथवा प्रयुक्त की गई सेवाओं की लागत से मापा जाता है।
उदाहरण :-विज्ञापन व्यय, कमीशन, ह्रास, किराया, वेतन, मूल्यहास, किराया, मजदूरी, वेतन, व्याज टेलीफोन इत्यादि ।
9. Expenditure: यह उपभोग किए गए संसाधनों की मात्रा है। आमतौर पर यह लम्बी अवधि की प्रकृति का होता है। इसीलिए, इसे भविष्य में प्राप्त किया जाना लाभदायक होता है।
10.Income (आय):आगम में से व्यय घटाने पर जो शेष बचता है, उसे आय (Income) कहा जाता है। व्यावसायिक गतिविधियों अथवा अन्य गतिविधियों से किसी संगठन के निवल मूल्य में होने वाली वृद्धि इनकम होती है। इनकम एक व्यापक शब्द है जिसमें लाभ भी शामिल होता है।
आय = आगम – व्यय 
11. Profit (लाभ) : प्रॉफिट किसी लेखांकन वर्ष के दौरान व्ययों की अपेक्षा आय की वृद्धि को कहा जाता है। यह मालिक की इक्विटी में वृद्धि करता है।
12. Gain: गेन किसी समयावधि के दौरान इक्विटी (निवल सम्पति) में गुड्स के स्वरूप और स्थान तथा होल्डिंग की जाने वाली असेट्स में परिवर्तन से उत्पन्न होने वाला बदलाव होता है। यह केपिटल प्रकृति या रेवेन्यू प्रकृति में से कोई एक अथवा दोनों ही तरह का हो सकता है।
14. Turnover (टर्नओवर): एक निश्चित अवधि में केश और क्रेडिट सेल्स दोनों को  मिलाकर कुल सेल्स को टर्नओवर कहते है ।
15. Proprietor(प्रोपराइटर): व्यवसाय में पूँजी निवेशित करने वाले व्यक्ति को उस व्यवसाय के प्रोपराइटर के रूप में जाना जाता है। यह व्यवसाय का संपूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए अधिकृत होता है। वह व्यवसायों करने में जोखिम वहन करता है तथा उसकी हानियों के लिए भी उत्तरदायी होता है।
16. Drawings (आहरण) : व्‍यापार का मालि‍क अपने व्यक्तिगत  खर्च के लि‍ए जो रूपया व्‍यापार से खर्च करता है या नि‍कालता है वह आहरण कहलाता है जैसे कि‍सी ने अपने  व्‍यापार के रूपयो से बच्‍चों के स्कूल   कि‍ फीस भरी है  तो वह आहरण कहलाती है  खर्च नही कहलाता है यह मालिक द्वारा व्यक्तिगत उपयोग हेतु निकाली जानेे वाली नकद या अन्य असेट्स की राशि है।
17. Purchase(क्रय) :पुन वि‍क्रय के लि‍ए खरीदा गया माल क्रय कहा जाता है यह उधार नकद दोना तरीके से  कि‍या जा सकता है
उदाहरण – कि‍सी कपडे के व्‍यापारी ने कपड़ा खरीदा है तो वह क्रय कहा जाता है लेकिन  साज सजावट के लि‍ए खरीदा गया फर्नीचर क्रय नही कहा जा सकता है
purchase दो प्रकार का होता है
a.Cash purchase(नकद क्रय )
b.Credit purchase(उधार क्रय)
18. Stock  : यह किसी व्यवसाय के अतर्गत उपलब्ध माल, स्पेयर्स और अन्य आइटम्स जैसी चीजों का पैमाना है। इसे क्लोजिंग स्टॉक भी कहा जाता है। किसी व्यापार के अतंर्गत स्टॉक आॅन हैड माल की वह मात्रा होती है जिसे बैलेंस शीट तैयार किए जाने की दिनाकं तक बेचा नहीं गया होता है। इसे क्लोजिंग स्टॉक (एंडिग इन्वेटरी) भी कहा जाता है। किसी विनिमार्ण कम्पनी के अंतर्गत क्लोजिंग स्टॉक में यह कच्चा माल, आधा-तैयार माल और पूरी तरह से तैयार माल शामिल किया जाता है जो क्लोजिंग डेट पर हाथ में उपलब्ध रहता है। इसी प्रकार से, अकाउंटिंग ईयर (लेखा वर्ष) के प्रारंभ मे स्टॉक की मात्रा को ओपनिंग स्टॉक (प्रारंभिक इन्वेटरी) कहा जाता है।
19.Creditor(लेनदार): जिस व्यक्ति से हम उधार माल खरीदते है उसे हम creditor कहते है 
20.Debtor(देनदार) : जिस व्यक्ति को हम उधार  माल  बेचते है उसे हम Debtors कहते है 
21. Discount (डिस्काउंट) : यह रियायत का एक ऐसा प्रकार है जो व्यापारी द्वारा अपने कस्टमर्स को प्रदान किया जाता है।
CASH AND ACCRUAL
प्रत्येक व्यवसाय में, केवल वे लेनदेन रिकॉर्ड किए जाते हैं और मान्यता प्राप्त होते हैं जो पैसे से संबंधित होते हैं। दो लेखा प्रणाली हैं, जिनके आधार पर लेनदेन पहचाने जाते हैं, अर्थात् लेखांकन की नकदी प्रणाली और लेखांकन की संचय प्रणाली। किसी इकाई की बहीखाता के लिए दोनों दृष्टिकोणों के बीच मूल अंतर समय पर है, यानी नकद लेखांकन में , रिकॉर्डिंग तब की जाती है जब नकदी का प्रवाह या बहिर्वाह होता है। दूसरी ओर, संचय लेखांकन में , यह उत्पन्न होने पर तुरंत आय और व्यय रिकॉर्ड करता है।

नकद लेखांकन की परिभाषा

लेखांकन का आधार जिसमें राजस्व और व्यय की मान्यता केवल तभी की जाती है जब वास्तविक रसीद या नकदी का वितरण होता है। इस विधि में, जिसमें वास्तविकता में नकदी का प्रवाह या बहिर्वाह मौजूद होता है, जिसमें आय या व्यय पहचाना जाता है।
विधि का उपयोग ज्यादातर व्यापारियों, ठेकेदारों और अन्य पेशेवरों द्वारा किया जाता है जो नकदी का प्रवाह होने पर और आय के बाहर होने पर रिपोर्ट खर्चों की रिपोर्ट करते समय उनकी आय को पहचानते हैं।
इसके अलावा, नकद लेखांकन को लेखांकन में उच्च ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, एक व्यक्ति को बहीखाता के बारे में कम ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को इस प्रणाली के अनुसार रिकॉर्ड बनाए रख सकते हैं। कैश एकाउंटिंग के प्रमुख लाभों में से एक कर में देखा जाता है, यानी खर्च और कटौती आसानी से की जाती है। हालांकि, GAAP (आम तौर पर स्वीकृत लेखांकन सिद्धांत) और आईएफआरएस (अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग फ्रेमवर्क) द्वारा कई दोषों के कारण विधि की अनुशंसा नहीं की जाती है:

  • यह मिलान अवधारणा के साथ मेल नहीं खाता है।
  • एक लेनदेन की घटना और इसकी मान्यता में समय लगी है।
  • सटीकता में कमी  
संचय लेखा की परिभाषा
संचय लेखा वर्तमान लेखांकन का आधार है। इसे लेखांकन की व्यापारिक प्रणाली के रूप में भी जाना जाता है जिसमें लेन-देन की पहचान होती है और जब वे होते हैं। इस विधि के तहत, अर्जित होने पर राजस्व दर्ज किया जाता है, और जब खर्च किए जाते हैं तो खर्च की सूचना दी जाती है।
मिलान अवधारणा के अनुसार, किसी विशेष लेखांकन अवधि के खर्च अपने राजस्व से मेल खाते हैं।लेखांकन का संचय आधार इस मानदंड को पूरा करता है; यही कारण है कि इसे रसीदों और भुगतानों को रिकॉर्ड करने के लिए एक प्रभावी उपकरण माना जाता है। हालांकि, कुछ वस्तुओं को वित्तीय वर्ष के अंत में समायोजित करने के लिए जरूरी है जैसे कि:
  • बिना कमाया पैसा
  • अर्जित आय
  • प्रीपेड खर्चे
  • बकाया व्यय
इस विधि को अधिकांश संस्थाओं द्वारा प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि प्रणाली न केवल राजस्व और व्यय के संबंध में पिछले लेनदेन के बारे में सूचित करती है, बल्कि यह भविष्य में उत्पन्न होने वाली नकद प्राप्तियां और वितरण की भी भविष्यवाणी करती है। इसके अलावा, संचय लेखांकन की प्रमुख कमी में से एक यह है कि कंपनी को उस आय पर कर चुकाना पड़ता है जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है।

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